दूध पर जमी मलाई का भगौना भर गया,
आज माँ ने पिन्नियाँ बनानी हैं।
घर में घी जो बन रहा, बने बिना बिखर गया,
आज चूल्हे आग न लगानी है।
साग जो बिलखती माँ के खून से निखर गया,
आज आँसू से फसल उगानी है।बेतहाशा बद तमीज़ बच्चे जो हैं पल रहे,
कंठ कड़वा, ऐसा भड़वा, गिरते यूँ संभल रहे,
इनक़लाब की गलत मिज़ाज में मसल रहे,
रूह रुदन कर रहीं, न दिल रहे, बस छल रहे।चोट की चिंगारी में, चार चित्रकार हैं,
चैन के चिंघाड़ में चौरासी ज़िम्मेदार हैं,
चुन के चुप बैठा दिए ये ऐसे कारोबार हैं,
चार धाम में गिरे ये चित चौरासी बार हैं।ठंडी चाय की मलाई की तरह ये है त्वचा,
चोट खा शरीर आदि हो गया,
पिन्नियाँ तो बन गईं, न चखने को कोई बचा,
पुत्र उसका ही कहीं है खो गया,
सरसों और सूरजमुखी जो लाल से रहे रचा,
ब्याह ही वह वरिष्ठ व्यर्थ हो गया।टूटी लाल चूड़ियाँ ही दिख रहीं बाज़ार में,
दिख नहीं रहे हैं पस्त प्रतीक अब मल्हार में,
अब सितम के साथ ही ये घूंट है बहार में,
वह ही माथे बिछ रहे, जो झुके दरबार में।घिरते नीले आसमां में काले विस्तार हैं,
बिक रहे ज़मीर के चौरासी साहूकार हैं,
नित नपुंसक नर नहीं, नाराज़ वह बाजार है,
चार धाम में गिरे ये चित चौरासी बार हैं।
– अमितोज सिंह
जामिया मिल्लिया इस्लामिया