चाँद रखना धीरे से क़दम
कुछ लोग अभी ही सोए हैं
कुर्बान करके अपनी ही नींद
जिन्होंने लाखों ख़्वाब बोए हैं
उस रात के शोर में तुमने
क्या ख़ामोशी की आवाज़ सुनी?
कफ़स जो सारे बिखर गए हैं
क्या उनकी अनसुनी फ़रियाद सुनी?
ऐ चाँद तू अब ग़ुरूर न कर
ये रात अब तेरी नहीं
आसमान भी जो सुना रहा है
वो कहानी भी तेरी नहीं
देख कैसे सैंकड़ों परिंदे
वक्त की क़ैद से आज़ाद हुए
और हुक्मरानों के रुतबे
चीख भर से बरबाद हुए
कौन क़ैद कर सका है उन्हें
उड़ना जिनकी फ़ितरत में है
आसमान की ख़ूबसूरत बाँहें
देख अब किसकी किस्मत में है
इनकी परवाज़ का वो हौसला
मुझको भी लाजवाब कर गया
बरसों से खड़ी सलाखों का जो
आख़िर हिसाब कर गया
– सैय्यद फ़ारुक़ जमाल
जामिया मिल्लिया इस्लामिया